मीराबाई को कौन नहीं जानता. बचपन में ना जाने कितनी बार पढ़ा है. कृष्णभक्ति से ओत-प्रोत एक भक्तिन थी. मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगता था. उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की. घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं. वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था. लोग मीराबाई को देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे. इसी दौरान अपने घर-परिवार से दुखी होकर उन्होंने राममार्गी तुलसीदास को पत्र लिखा --
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र का जवाब तुलसी दास ने इस प्रकार दिया--
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।
1 comment:
mere to giridhar gopal duja na koy...
sadhuvad svikare in bhavmay pado ko ham tak panhuchane ke liye
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