Wednesday, October 10, 2007
गुरू दक्षिणा
भारत में गुरू-शिष्य परम्परा पुरातन समय से चली आ रही है. उस समय शिष्य गुरुकुल में जाकर शिक्षार्जन करते थे. और शिक्षा पूरी होने पर अपने गुरू को गुरू दक्षिणा देते थे. भारतीय इतिहास में गुरू-शिष्य का श्रेष्ठ उदाहरण आचार्य द्रोण और अर्जुन को मना जाता है जबकि गुरूदक्षिणा (जो शिक्षा समाप्त होने के बाद दी जाती थी) का नाम आते ही एकलव्य का नाम याद आता है जिसने गुरू दक्षिणा में अपना अंगूठा दे दिया था.पर ये अब केवल किस्से कहानियों में ही दिखाई देते हैं.
आज के दौर में गुरू-शिष्य परम्परा का व्यवसायिकरण हो गया है जहाँ गुरू दक्षिणा शिक्षा प्रारम्भ होने से पहले ही ले ली जाती है जो शिक्षार्थी की समर्थता पर नहीं वरन गुरू की लोकप्रियता पर निर्भर करता है. इस दौर में जहाँ गुरू-शिष्य के रिस्ते शीर्ण हो रहे हैं वहीं कुछ शिष्य जीते जी गुरू को तो कुछ नहीं देते हैं लेकिन बाद में गुरू को श्रदांजली नाम पर अपनी माया(वती)(मुख्यमंत्री,उत्तर प्रदेश) का प्रभाव दिखाते हुए जनता जनार्दन से अर्जित आय एवं सरकारी महकमे का भरपूर (दुर्)प्रयोग करते हुए सबसे बड़ी गुरू दक्षिणा देते है. जनता जनार्दन ना चाहते हुए भी मूकदर्शक बनी रहती है और यही गाती है ------
रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं।
अपना खुदा है रखवाला, अब तक उसी ने है पाला॥
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