*****कविता *****
धरती कहे पुकार के
अब तो सभलो भाई
धड़कनें मेरे दिल की
क्यूँ बढ़ाते हो भाई
जबसे भेजा बच्चा तुमने स्कूल
भेजे में भरते गये उसके ये फितूर
दोहन नहीं हुआ धरती का ढंग से
लूटो, खसोटो बचे आभूषण उसके तन से
आभूषण मेरे पेड़, पहले ही छीन डाले तुमने सारे
मेरे तन का खून, नदी नाले सारे
कर दिया पैदा इनमें अवरोध
फिर भी नहीं कोई अपराधबोध
लूटा खसोटा तन को मेरे
खून रूका तन का मेरे
मन हो उठा बेचैन, उठा गुबार मन का मेरे
बन ज्वालामुखी अखियन तेरे
जब तक सताएगा, तड़पाएगा मुझे
नहीं मिलेगा चैन, आराम तुझे
मिलते रहेंगे नित नये झटके तुझे
अब तो सभल जा और समझ जा मुझे
मॉ तो होती है सब लुटाने वाली
पर क्यूं लगी तुझे लूटने की बिमारी
क्यूं करता यूं तू मारामारी
अब भी सभल जा वक्त रहते,बहुत बुरी है तेरी ये बिमारी
बहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteबधाई!
अच्छी वैचारिक और विश्लेष्णात्मक ,मानवीय रिश्तों के महत्व और उसके व्यक्तिगत जीवन में महत्व को दर्शाती इस अच्छी संदेशात्मक कविता के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद / ब्लॉग हम सब के सार्थक सोच और ईमानदारी भरे प्रयास से ही एक सशक्त सामानांतर मिडिया के रूप में स्थापित हो सकता है और इस देश को भ्रष्ट और लूटेरों से बचा सकता है /आशा है आप अपनी ओर से इसके लिए हर संभव प्रयास जरूर करेंगे /हम आपको अपने इस पोस्ट http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html पर देश हित में १०० शब्दों में अपने बहुमूल्य विचार और सुझाव रखने के लिए आमंत्रित करते हैं / उम्दा विचारों को हमने सम्मानित करने की व्यवस्था भी कर रखा है / पिछले हफ्ते अजित गुप्ता जी उम्दा विचारों के लिए सम्मानित की गयी हैं /
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लगी आप की यह रचना. धन्यवाद
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